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घूस दूं या नहीं?

बिना टिकट
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18 साल का मेरा बेटा बहुत उत्‍तेजित था। एक इंस्‍टीट्यूट में वह अपनी फीस जमा कराने गया था। लेकिन लौटकर उसने बताया, फीस जमा नहीं हुई। मैंने पूछा- क्‍यों? उसने कहा, फीस जमा करने के काउंटर पर बैठे बाबू से उसका झगड़ा हो गया। क्‍यों? सवाल पूछते हुए मैं बेसब्र हो रहा था, परसों फीस जमा करने की आखिरी तारीख है और लेट फीस के साथ फार्म जमा कराने का कोई प्रावधान है नहीं ।

बेटे ने जो बताया, वह पूरा किस्‍सा इस प्रकार है- वह फीस जमा कराने काउंटर पर गया तो बाबू ने 50 रुपए अलग से नकद मांगे। बेटे ने पूछा, किस बात के? बाबू ने कहा, प्रिंसिपल का आदेश है। बेटे ने रसीद मांगी तो बाबू ने मना कर दिया। बस इसी बात पर दोनों के बीच तूतू मैंमैं हो गई और बाबू ने फार्म लेने से मना कर दिया। बेटे ने प्रिंसिपल से मिलने की कोशिश की तो पता चला, वह कई दिनों के लिए बाहर हैं।

अजीब उलझन खड़ी हो गई थी। गुस्‍सा तो बेटे पर ही आ रहा था कि बेवजह बात का बतंगढ़ बना दिया, चुपचाप 50 रुपए देकर आ जाता। पर बड़ी मुश्किल से अपने गुस्‍से पर काबू किया। जवान खून है, क्‍या पता कैसे रिएक्‍ट करे। दूसरे, दिमाग ने भी कहा कि उसे नसीहत देने का मतलब है, करप्‍शन और करप्‍ट लोगों का पक्ष लेना। मैंने संयत स्‍वर में कहा- पूरा सिस्‍टम ही ऐसा है, क्‍या करोगे? वह गरमी दिखाता हुआ बोला- मैं घूस तो नहीं दूंगा। इस बार मेरा स्‍वर कुछ चिड़चिड़ा था- तो क्‍या करोगे, एडमिशन तो वहीं लेना है। फीस नहीं जमा हुई तो क्‍या होगा? उसने तैश में कहा- मैं यूनिवर्सिटी तक जाउंगा, वाइस चांसलर से शिकायत करूंगा। मैंने कहा- उससे क्‍या होगा? और ये सोचो कि तब तक एडमीशन तो खत्‍म हो गए होंगे। वह चुप रहा। शायद अब जवाब उसके पास भी नहीं था।

अब आप ही बताइए, सिचुएशन ऐसी विकट हो तो आखिर इसका जवाब हो भी क्‍या सकता है? एक भ्रष्‍ट बाबू बिना घूस लिए काम न करने पर अमादा है। एक जवान लड़के ने घूस न देने की ठान ली है। और एक पिता, यानी कि मैं, अपने बेटे के भविष्‍य को लेकर चिंता से घुला जा रहा हूं। हमारे पास अब केवल दो दिन हैं। परसों फीस जमा करने की आखिरी तारीख है। अगर दो दिन इसी तरह सोच-विचार में निकल गए तो तोते हमारे हाथ से उड़ चुके होंगे। तब क्‍या?

मैंने कहा- कल मैं तुम्‍हारे साथ चलूंगा, देखते हैं। बेटा अडिग था- आप चलोगे और उससे यही कहोगे कि बच्‍चा है, गलती हो गई। मैंने चिड़चिड़ाकर कहा- मुझे मत समझाओ कि क्‍या कहना है, क्‍या नहीं। बस इसी के साथ हम दोनों के बीच संवाद पर पूर्ण विराम लग गया।

रात देर तक मुझे नींद नहीं आई। बिस्‍तर पर करवटें बदलते हुए बस एक ही बात बार-बार जेहन में कौंध रही थी कि किसी भी तरह कल बेटे के फार्म को जमा करा दिया जाए। यकीन मानिए, मैं घूस नहीं देने के बारे में कतई नहीं सोच रहा था। उसके लिए तो मैं तैयार था। मुझे चिंता ये सता रही थी कि कहीं वह भ्रष्‍ट बाबू कोई अड़ंगा न लगा दे। मैं ये भी सोच रहा था क्‍या बाबू को बेटे का नाम याद होगा या वह उसके फार्म को पहचान जाएगा? इसकी उम्‍मीद तो नहीं थी, और यही बात मेरी उम्‍मीद बढ़ा रही थी। लेकिन बेटे का अड़ियल रुख भी मेरे मन में आशंकाएं खड़ी कर रहा था। कहीं उसने साथ इंस्‍टीट्यूट चलने की जिद की तो? मुझे विश्‍वास था कि अकेले जाकर मैं किसी भी तरह मामले को सुलटा सकता था, लेकिन अगर बेटा साथ गया तब बखेड़ा होना निश्चित था। तो क्‍या बेटे को साथ चलने के लिए मना कर दूं? पर क्‍यों? किस नैतिक अधिकार से? ऐसा करने पर वह मुझे भी भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था का ही हिस्‍सा नहीं मान लेगा?

अब आप ही बताइए, मैं क्‍या करूं? क्‍या चुपचाप जाकर बाबू को घूस दे आउं? क्‍या बेटे को साथ लेकर जाउं और बाबू से तर्क करूं? या बेटे के करियर की परवाह न करते हुए भ्रष्‍टाचार के खिलाफ बिगुल बजाउं? वक्‍त कम है, इसलिए कृपया जल्‍दी अपनी राय दें।

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